बिखरता बचपन टूटते सपने
छोटु दो कप चाय
जल्दी लेकर आ, बिटू जल्दी से साहब की गाडी साफ़ कर, रामू जल्दी से बर्तन साफ़ कर
ग्राहक आने लगे है, छोटे गाड़ी का पाना पकड़ा, अरे कन्हेया जल्दी से टेबल साफ़ कर ।
कुछ इस तरह के वाक्यांश आप लोगों के कानों में सुबह की भाग दौड़ के साथ गूंजने शुरू
हो जाते है ।
ममा स्कूल के लिए
देरी हो रही है जल्दी करो मेरा लंच बॉक्स डाल दो, पापा आपकी वजह से मेरी स्कूल बस
छुट गई अब आप मुझे स्कूल छोड़ कर आओ, पापा मैं स्कूल तभी जाऊंगा जब आप मुझे शाम को नयी साइकिल दिला कर लाओगे, ममा मेरे
जन्मदिन पर मुझे नई ड्रेस चाहिए, आज चाचा हमे
पार्क लेकर जायेंगे । इस तरह के वाक्यांश भी हमे अक्सर इन्ही लोगो की भीड़ में
सुनने को मिलते है ।
अलार्म की घडी के
साथ सुबह के छ बजे गये । रोज़ की तरह स्नान करके पूजा पाठ कर अपने स्कूल के लिए
निकल चला । स्कूल भी था तो बहूत दूर इक गाँव में, जहाँ तक पहुंचने के लिए मैंने
लोह पथ गामनी अथार्त रेलगाड़ी पकड़ी और स्कूल पहुँच कर अपनी क्लास में बैठे बच्चो की
उपस्थिति दर्ज कर रहा था । राम ..आया हूँ बिटू ... आया हूँ मास्टर जी सीता आई हूँ
मास्टर जी भोल्ला ... आया हूँ श्याम... आया हू । बस क्लास लेकर फिर मैं थोड़ी देर
के लिए बाहर बगीचे में बैठा और सोचा की चाय की चुस्की ले लू तभी स्कूल के गेट से
अंदर की और आता हुआ 10 साल का एक मासूम सा बच्चा रामू जोर से आवाज़ लगाते हुआ बोला
कि मास्टर जी चाय लोगे ।
दोपहर होते ही पास
ही के एक होटल में हम अपना भोजन करने के लिए चल दिए । टेबल पर बैठते ही होटल मालिक
ने आवाज़ लगायी जोर से और कहा की भोला जल्दी से टेबल साफ़ कर मास्टर जी का खाना लगा
दे, लगता है की मास्टरआईन ने आज खाना नहीं भेजा साथ में । बस फिर भोला ने खाना
लगाया और खाना खा कर फिर से स्कूल में कक्षा लेकर मैं लौट चला घर की ओर । शाम को
मेरी बेटी गीता ने कहा कि पापा मुझे नए जूते चाहिए । रात का खाना खा कर जब मैंने
बिस्तर पकड़ा और आँखें मूंदी तो तभी मेरे कानों में मासूम बच्चो सी आवाजें गूंजने
लगी और मैं उठ कर बैठ गया ।
फिर याद आया मुझे एक
मासूम बचपन रेल की पटरियों पर खेलते हुए । जब सुबह मैं अपने स्कूल को ट्रेन पकड़ कर
चला था । सीट तो थी नहीं तो बाहर गाड़ी के गेट पर जाकर खड़ा हो गया मैं । तभी दूसरी
ओर रेल की पटरी पर मुझे कुछ चहकते हुए मासूम से चेहरे दिखें जो एक हाथ में बहूत बड़ा झोला
थामे हुए थे और दुसरे हाथ से पटरी पर लोगों के फेकें हुए प्लास्टिक के
थेले और खाली पानी की बोतलों को उठा रहे थे लेकिन फिर भी चेहरों पर इक ख़ुशी थी ।
दुसरे ही पल मुझे याद
आया वो एक और मासूम चेहरा जो अपने छोटे छोटे हाथों में चाय के गिलास लिए सबको चाय
पूछ रहा था । उस पल से उभरता तभी मुझे इक और बचपन नज़र आया जो अपने छोटे छोटे हाथों
से होटल के एक कोने में बैठ लोगों के जूठे बर्तन साफ़ कर रहा था ।
ये मंज़र याद कर मेरी
आँखें छलक उठी । बंद आँखों के साथ जब इक बच्चा धरती पर जन्म लेता है तो उसे नहीं मालूम कि उसकी किस्मत में
उस खुदा उस भगवान् ने क्या लिखा है । क्या लेकर वो इस
दुनिया में आया है और क्या लेकर वो इस दुनिया से जायेगा । लेकिन जीवन के कुछ
पड़ावों से होकर जब वो खेलने की उम्र तक आता है उस उम्र में कुछ ऐसे ही बच्चो के
हाथों में लोगो के झूठे बर्तन, इक झोला या चाय के गिलास कोई न कोई थमा देता है ।
स्कूल में अक्सर जब
बच्चों से पूछता हूँ कि वो बड़े होकर क्या बनना चाहते है उनका क्या सपना है तो कोई
कहता है कि डॉक्टर बनूंगा कोई कहता है पायलेट बनूंगा कोई कहता है व्यापारी बनूँगा
तो कोई न जाने कितने बड़े बड़े सपनो को अपनी मासूम सी आँखों में सजोये रखता है ।
लेकिन उन आँखों के सपनो का क्या होगा जो रेल की पर जन्म लेता है तो उसे नहीं
पटरियों को ताक रही है जो लोगों की
भीड़ में चाय गरम चाय गरम की आवाज़ लगा रही है या जो किसी होटल की चोखट पर लोगो की
झूठन साफ़ कर रही है । वो सपने तो बचपन के साथ ही न जाने कहाँ बिखर गये होंगे ।
मेरी बेटी गीता के नए जूते लेने की बात सोच कर मेरी नज़र उन बच्चों के नन्हें
नन्हें खाली पाँवों की और पड़ी और सोचा की ये नन्हें पांव न तो तपती जमीं देखते और
न ही सर्दी की सर्द को महसूस करते ।
आखिर हमारे देश में
इन मासूम बच्चों की ये हालात क्यों है । क्यों इन मासूम बच्चों को दो वक़्त की रोटी के लिए अपने छोटे छोटे के लिए अपने
छोटे छोटे सपनों को पूरा करने के लिए अपने बचपन को भूला देना पड़ता है
जिस उम्र में जिन हाथों में किताबें होनी चाहिए थी उन मासूम नन्हे नन्हे हाथों में
कौन है वो जो इस झोला चाय के गिलास झूठे बर्तन थमा देता है । जिन बच्चों को हम देश
का भविष्य बतलाते है वो बचपन आज हमारे देश मे कहीं ना कहीं बाल मजदूरी का शिकार हो
रहा है ।
हमारा समाज क्या इन
मासूम से बच्चों के सपनो को पूरा नहीं कर सकता । क्या हमारे देश में भी दुनिया के
कुछ देशों की तरह बच्चे के 5 साल के हो जाने पर सरकार उसके पढने लिखने, खाने पीने
का खर्चा नहीं उठा सकती । जब इस तरह की तस्वीर इन मासूम बच्चों की मैं अपने समाज
में देखता हूँ तो खुद को भी बहूत लाचार और बेबस पाता हूँ । क्योंकि जिस देश समाज
और लोगो से मैं बाल मजदूरी को खत्म करने के प्रयास की कल्पना कर रहा हूँ आखिर मैं
भी इसी का हिस्सा हूँ । लेकिन किसी न किसी को कहीं से तो इसका आगाज़ करना होगा ।
अगर हम सब मिलकर कोशिश करे और अपने व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकाल कर बाल
मजदूरी कर रहे इन बच्चों को थोडा बहुत लिखना पढना सिखा सके इनके लिए कुछ सुविधाएँ
जुटा सके तो शायद ये मासूम बच्चें अपने कुछ सपनों को पूरा करने का होसला अपने अंदर
फिर से जगा सके । शायद इस तरह के प्रयासों से हम बिखरते बचपन के टूटते सपनों को
पूरा कर सकें ।
लेखक
सन्नी गुप्ता (आरव)
सहायक प्रवक्ता
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